हसरत से निगाह डालता परिंदों के घरों पे
ढूँढता हूँ हर शाम इक अपना सा मकां
वोह मकां जिसमे ना जफ़ाओं का गुज़र हो
मुस्कुरा के ढले और जहाँ वस्ल की शाम
हर दम रहे करीब मेरी नाज़ुक सी वोह मोहसिन
वही शोख ही कभी दे मुझे महबूब का नाम
रूए -रोशन से उजाले हों जहाँ शाम -ओ -सहर
जुल्फों के अंधेरों में कटे उम्र तमाम
कभी मिला ही नहीं था अब ऐसा भी नहीं है
मैं ही गुज़र गया समझ के गैर का बाम