इश्क कि बाज़ी थी खेली और हार दी
हमसे अब न कहना कि यूँ ही गुज़ार दी
वोह इश्क में करते रहे कुछ एसी तजारत
इक उम्र के बदले में मोहब्बत उधार दी
इन तारीकियों में शायद खुद को मिल ही जाएँ
कैसे हसीं गुमां में वो जुल्फें संवार दी
वोह छुप के दरीचों से हमें देखते रहे
हमने भी उस गली में सदा बार बार दी
मुद्दत के बाद उनको हम यूँ हसीं लगे
इक नज़र में उसने नज़र ही उतार दी
कमबख्त मेरी गज़ल के मायने बदल गया
जब मेरी सबा के एवज अपनी बहार दी