Saturday, July 17, 2010

मेरे आँगन की कली....

आज फिर थी नुमाया वही सावन की कली...

  नई सहर के परिंदों के चेह्चहाने में
  उसी कोयल का मन मीत को बुलाने में ,
   मेरी दोस्त गिलैहरी के पास आने में
    रंगीन तितलयों की शोखिओं में छुपी
    मेरी ग़मगीन हंसी देख के वोह बोली कली ..

तेरा तो गम से जैसे उम्र भर का नाता है
मेरी शबनम हैं मेरे आंसूं आज तेरे लिए
तुझे पता था ना मैं वोह बेवफा सनम तो नहीं
कब्ल-ए-फसल -ए-बहारां जो नहीं आये कभी ,
तुझे पता था ना मैं इस बार लौट आऊंगी ..

 चल, मुझी से सीख ले जीने का चलन
  रवां है बादे -सबा, जा , ले ले सांस ज़रा,
  चलूँगी  थाम तेरा दामन आज आठों पहर
   होगा इक गीत मोहब्बत का जब लबों पे तेरे
   तेरे संग मैं भी हंस -हंस के गुनगुनाऊंगी

ज्यों ही देखी मेरे होटों पे तबस्सुम की लकीर
महक उठा मेरा आँगन जब इक उम्र के बाद ,
उसने हौले से खुद को दर -किनार किया
मुझे देखा ना जाने किस अजब सी चाहत से
सिमट के खुद में ,धीमे से फिर कहा मुझसे ..

 खुदा का शुक्र है निबाह सकी मैं कर्म अपना ,
  हो गयी शाम,  है वकत गुज़र जाने का
  मेरे दोस्त ,मेरे मोहसिन ,मेरे होने की ज़मीं
   तू जिगर रखना ,जगह रखना ,के अगले बरस
    इन्हीं बूंदों में नहाने मैं फिर से आऊंगी .........