Thursday, June 27, 2013

आँगन की कली ......इस बरस

उसी वीरान आँगन के घनेरे पेड़ के नीचे
दबी सहमी सी दुबकी सी मेरी धुप जहां है ,
रुपहली गाल पे लिए शबनम के  चंद आँसूं
मुझे वोह पूछती है बोल मेरा हमसफ़र कहाँ है

पकडती है मेरा दामन मेरी जानम ,कली मेरी
तुझे कह कर गयी थी मैं की तू जिगर रखना,
बिखर न कहीं जाना दुनिया की रिवायत से
मैं आऊंगी बरस अगले तू बस जगह रखना

सिखा कर गयी थी तुझको जीने का चलन उस शब
वही जिस रोज़ तूने  दिल के टुकड़े संजोये थे ,
होता है मसीहा हर बा-पाक शीशे का
इसी बात पर दोनों ने अपने ख्वाब बोए थे

मगर देख तूने न जिगर न ही जगह रखी
मेरे जाने के बाद ऐसा क्या मसरूफ हो गया ,
बता तो दे तेरा क्या अलग सा हो गया तुझसे
क्यूँ फिर से मेरे दोस्त तू मायूस हो गया

नहीं आना नहीं आना इस आँगन मैं भूले से
वीरानियों मैं क्यूँ भला चटके कली कोई ,
मुझे तो इश्क था तेरे होटों की तब्बसुम से
चलूँ ,उठूँ ,भटकूं, देखूँ फिर गली कोई

मेरी नम पलक को देख कर वोह ज़रा ठिठकी
बोली की जब चाहो मुझे फिर से बुला लेना ,
टुकड़ा इक ज़मीं का न हो गर तेरे मुक्कदर में
मुझे चुपके से अपने दिल में ही खिला लेना