Tuesday, November 16, 2010

रस्म-ए-शहर-ए- हुस्न

ना डूबे हैं सफीने न लहरों में गहराई
क्या खाक मज़ा लेंगे साहिल के तमाशाई

इक दिन की मोहब्बत का मज़ा  देखते हैं
बे-रंग-ओ-वफ़ा निकली उमरों की शनासाई

अच्छा है  इस हयात के काबिल तो हुए
दिल में कोई उमंग है न क़दमों में तवानाई

घबरा के अंधेरों का पता पूछते रहे
उनको डराती रही उन्ही की परछाई

कब नसीब होगा हमें रंग-ओ-राज़-ओ -नियाज़
किस दिन कता करेंगे वोह गैर से रमज़ाई

तुम ही कहो ...

तुम को देखूँ कि खुद से बात करूँ
इस हसीं दिन को कैसे रात करूँ

क़त्ल हो जाऊं और दम भी न निकले
तुम्ही कहो यह कैसे करामात करूँ

जिस में तू बा-वफ़ा निकले
अब तामीर वो कायनात करूँ

क्यूँ खुद को खुदा समझता था
ना-खुदा से कुछ सवालात करूँ

तुम साथ दो तो फिर क्यूँ ना
इसी  सफर को असल-ए-हयात करूँ

जब उस हसीं से खेल ली बाज़ी
दिल कहे खुद ही अपनी मात करूँ