Tuesday, November 16, 2010

रस्म-ए-शहर-ए- हुस्न

ना डूबे हैं सफीने न लहरों में गहराई
क्या खाक मज़ा लेंगे साहिल के तमाशाई

इक दिन की मोहब्बत का मज़ा  देखते हैं
बे-रंग-ओ-वफ़ा निकली उमरों की शनासाई

अच्छा है  इस हयात के काबिल तो हुए
दिल में कोई उमंग है न क़दमों में तवानाई

घबरा के अंधेरों का पता पूछते रहे
उनको डराती रही उन्ही की परछाई

कब नसीब होगा हमें रंग-ओ-राज़-ओ -नियाज़
किस दिन कता करेंगे वोह गैर से रमज़ाई

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