Wednesday, January 26, 2011

गिलहरी

वोह इस मकां की
मेरी आखरी दोस्त ,
टुकर टुकर मेरे हाथों
से निवाले चुनती ,
हर अफसुर्दा-दिली
नज़र नज़र तकती
किसी तिफल की मानिन्द
छुपती दिखती ,दिखती छुपती ,
बीते कुछ रोज ,इधर
शायद  गयी थी किधर .
कोई तितली ,कोई जुगनू
परिंदा भी नहीं
कोई आहट कोई शमां
कोई नटखट ही नहीं ...
वीरां सा वही घर था
लुटा दर था ,कि चुप से,
उसी दरीचे से छुप कर
वोह बोली ,"माफ कर दो ना
में थी तो यहीं .....
अब नहीं जाना कहीं .......


बहुत भूख लगी है "