Tuesday, November 16, 2010

रस्म-ए-शहर-ए- हुस्न

ना डूबे हैं सफीने न लहरों में गहराई
क्या खाक मज़ा लेंगे साहिल के तमाशाई

इक दिन की मोहब्बत का मज़ा  देखते हैं
बे-रंग-ओ-वफ़ा निकली उमरों की शनासाई

अच्छा है  इस हयात के काबिल तो हुए
दिल में कोई उमंग है न क़दमों में तवानाई

घबरा के अंधेरों का पता पूछते रहे
उनको डराती रही उन्ही की परछाई

कब नसीब होगा हमें रंग-ओ-राज़-ओ -नियाज़
किस दिन कता करेंगे वोह गैर से रमज़ाई

तुम ही कहो ...

तुम को देखूँ कि खुद से बात करूँ
इस हसीं दिन को कैसे रात करूँ

क़त्ल हो जाऊं और दम भी न निकले
तुम्ही कहो यह कैसे करामात करूँ

जिस में तू बा-वफ़ा निकले
अब तामीर वो कायनात करूँ

क्यूँ खुद को खुदा समझता था
ना-खुदा से कुछ सवालात करूँ

तुम साथ दो तो फिर क्यूँ ना
इसी  सफर को असल-ए-हयात करूँ

जब उस हसीं से खेल ली बाज़ी
दिल कहे खुद ही अपनी मात करूँ

Saturday, November 13, 2010

शराब-ए-कोहना

उनकी हया से पूछें कि उनके हिजाब से
कर लें क्या मोहब्बत अब हम जनाब से

आँखों में आँखें आपकी फिर क्यूँ न डाल दें
बनती नहीं है बात कुछ जानम शराब से

लोग उनकी पहेली को अलग बूझते रहे
खड़े हम भी थे परेशां इस इंतखाब से

कहने लगे के दिन में न होना रु -ब -रु
ज़ायदा  हसीन लगते हो अपने ही ख्वाब से

देखें क्या करेंगे वोह हम से अब सवाल
कुछ कांप से गए हैं मेरे पहले जवाब से

पूछती है अपने ही माहताब से किरण
यह कौन निकल आया दिन में नकाब से

Thursday, November 11, 2010

जुर्म-ए -उल्फत

इश्क कि बाज़ी थी खेली और हार दी
हमसे अब न कहना कि यूँ ही गुज़ार दी

वोह इश्क में करते रहे कुछ एसी तजारत
इक उम्र के बदले में मोहब्बत उधार दी

इन तारीकियों में शायद खुद को मिल ही जाएँ
कैसे हसीं गुमां में वो जुल्फें संवार दी

वोह छुप के दरीचों से हमें देखते रहे
हमने भी उस गली में सदा बार बार दी

मुद्दत के बाद उनको हम यूँ हसीं लगे
इक नज़र में उसने नज़र ही उतार दी

कमबख्त मेरी गज़ल के मायने बदल गया
जब मेरी सबा के एवज अपनी बहार दी

Wednesday, November 10, 2010

जिंदगी

देखा इक मकाम पर
इस मोड से कुछ दूर
जलवा-ए जिस्म से
गोशा गोशा रोशन ,
बे-पनाह हुस्न पे इतराती हुई
इक महबूब कि मानिंद ,
दिल में इक राज़ लिए
खुद पे मुस्कुराती हुई,
इक हसीना जो बस इस
इंतज़ार में थी,
फलक के लाख सितारे
बा-सजदा होंगे अभी....
मगर इस कदर वोह
बदगुमाँ शाम ढली
लौटा ,के फिर  देखूं वो हसीन फज़ा
पर न वो रंग,वो नूर ,वो इतराना
न वो मेरी कही बात पे शर्मना
न वो ज़ुल्फ़ , न ख़म ,न काजल को लकीर
इक सियाही बरपा थी रूखे -रोशन पर
गर्द-ए-राहे सफर ही थी जूं नसीब उसका .....

मैं उस से पूछने ही वाला था कि कौन है तू
नज़र झुका के वोह बोली कि जिंदगी हूँ मैं .....

Wednesday, November 3, 2010

यह कैसी उम्मीद ??

दिन गुज़र चुका उस हसीन बात के बाद
नयी सदी उठेगी अब इस रात के बाद

जो गुज़रनी थी  हम पर  , गुज़र है चुकी
क्या होगी कयामत इन हालात के बाद

हमसे पहले खेलते इश्क की बाज़ी
क्या लुत्फ़ रहेगा अब मेरी मात के बाद

रोएँ तो ,जाएँ तो ,यार के काँधे पर
और क्या मांगना इस सौगात के बाद

इस अदा से झटकते हैं वोह ज़ुल्फ़ से पानी
कई मौसम बदल गए इस बरसात के बाद

Tuesday, November 2, 2010

मासूम सनम ......

 अपनी शब से तलिस्समों को मिटाना होगा
उनको सुबह के छलावों से मिलाना होगा

सर पे बोझ जफ़ाओं का लिए फिरते हैं
जो समझते थे कि क़दमों में ज़माना होगा

कितने भोले हैं सनम ,रकीबों से कहा करते हैं
हमें इक वादा -ए - वफ़ा भी तो निभाना होगा

शबे - फुर्क़त की हकीकत ने जगाया है जिसे
उसको ख्वाबों के दरीचों में बुलाना होगा

इस लुटे दर पे भला आज यह दस्तक क्यूँ है
उठ के देखूं , यह वही चोर पुराना होगा