Thursday, June 24, 2010

नई कहकशां की तलाश ...

हसरत से निगाह डालता परिंदों के घरों पे
ढूँढता हूँ हर शाम इक अपना सा मकां

वोह मकां जिसमे ना जफ़ाओं का गुज़र हो
मुस्कुरा के ढले और जहाँ वस्ल की शाम

हर दम रहे करीब मेरी नाज़ुक सी वोह मोहसिन
वही शोख ही कभी दे मुझे महबूब का नाम

रूए -रोशन से उजाले हों जहाँ शाम -ओ -सहर
जुल्फों के अंधेरों में कटे उम्र तमाम

कभी मिला ही नहीं था अब ऐसा भी नहीं है
मैं ही गुज़र गया समझ के गैर का बाम

2 comments:

S.P.SINGH said...

BEAUTIFUL THOUGHT ....

BUT THEN...

TU CHAMAN MAIN CHAHE JAHAN RAHE ..TERA HAQ HAI FASLE BAHAAR PAR

Anonymous said...

Dareechah bhi panah ki raah dekha sakta hai