Wednesday, July 14, 2010

दिले -जारे मसाफत....

लौट आया हूँ आज फिर इक दिन तमाम कर के
वही टूटे हुए सपने अब कल के नाम कर के

चंद लोग भी मिले थे ,कई ज़िक्र भी रहे थे
लज़्ज़त नयी ही पाई ,खुद से कलाम कर के

मीना भी सामने थी .साकी भी कुछ हसीं था
हम तशना रहे फिर क्यूँ बा -कफ यह जाम करके ?

क्या उनकी हैं अदाएं .क्या शोखी -ए -इबादत
करें गैर को वोह सज्दा ,हमको सलाम करके

सरे राह ही मिलें वोह,बस साथ साथ हो लें
लुत्फ़ उम्र भर का ले लूँ ,यूँ सहर को शाम करके ......

4 comments:

Anonymous said...

BESTEST!

Anonymous said...

ab aur kiya kaha jaye 'Dila-zaarey Musafatt' padd ke,
yh gum bhi itna haseen sa, ki ibaadat karne ko dil kare......

Anonymous said...

ab aur kiya kaha jaye 'Dila-zaarey Musafatt' padd ke,
ki gum-e-khuda ki tauheen kyun karo aam baat keh ke....

SP SINGH said...

ISS ANDAZ-E-BAYAN KO SALAAM

MERE AKS JAISE LAGTE HO

AB YAKEEN SA HO CHALA HAI

ITNE ACHCHE KYON LAGTE HO