Thursday, July 8, 2010

अंधेरों से उजालों के सफर.....

था रब्त उन्हें हमसे, ऐसे से गुमां हैं
माथे पे अभी तक कुछ होटों के निशां हैं

माना के रहे बेघर ,तेरे रोशन से शहर में
अंधेरों में सनम अपने दो -चार मकां हैं

रूह को सुकूं दे ना कभी जिस्म को राहत
इस दश्त में ऐसे ही चंद चारा -गरां हैं

अपनों की हकीकत नें जब पटखा है जमीं पर
कुछ ख्वाब अभी तक क्यूँ पलकों पे अयां हैं

अब यूँ ना समझना के तू ही है मेरा क़ातिल
इन ज़ख्मों से पुराने इन ज़ख्मों के निशां हैं

2 comments:

Anonymous said...

ws reading this poem while listening to shayne ward's song I CRY.....GOSH! THIS COMPOSITION WAS LIKE Icing on the cake....BINGO...FANTABULOUS

SP SINGH said...

WELL SAID....

KHWABON KI DUNIYA SE KYOON RAWANGI DALOON

MAANA KE KEHKASHAAN MEIN KAI AUR JAHAAN HAIN